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भलाई करना और उदारता दिखाना न भूलो, क्योंकि परमेश्वर अयसे बलिदान से खुश होता है याकूब 13 :16

आदिवासी भी पीछे नहीं थे स्वाधीनता संग्राम में

अंग्रेजी शासन से मुक्ति के लिए देश के हर कोने से जहाँ संघर्ष का बिगुल बजाया गया और हजारों लोग शहीद हुए वहीं झारखंड के छोटा नागपुर और संथाल परगना के आदिवासियों का भी आजादी के आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। छोटा नागपुर और संथाल परगना के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में बिरसा मुंडा, सिदो कान्हू, चाँद भोरभ, शेख भिखारी, तिलका माझी, बुद्ध भगत, रघूनाथ मुंगू जैसे क्रान्तिकारियों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जो शंखनाद किया उसका तात्कालिक असर भले ही न पड़ा हो किन्तु उसका दूरगामी असर संथाल परगना और छोटा नागपुर, झारखंड़ की संस्कृति पर अवश्य पड़ा।

शोषण, गुलामी, सूदखोरी के खिलाफ इन दोनों परगनाओं के गुमला, लातेहार, लोहरदगा, हजारीबाग, साहिबगंज पश्चिमी सिंह भूम, पूर्वी सिंह भूम, पलामू आदि जिलों की दुगर्म पहाड़ियों में फैले आदिवासियों में एक नई चेतना जगी और उनके दिलों से अंग्रेजों का डर खत्म हुआ जिसकी वजह से क्रांतिकारियों की एक नई पौध तैयार हुई।

वैसे तो झारखंड में आदिवासी अपने हक की लड़ाई के लिए जिसमें जंगल जमीन का मालिकाना हक शामिल था, 1831.32 के बीच में ही शुरू कर दिया था। आजादी के संघर्ष में जिन आदिम जन जातियों ने बढ़-चढ़ कर भूमिका नीभाई उसमें, मुंडा, उराँव, कोल, बिहोर, पहाड़िया, सौरिया, बड़ाईक, पाहन, महतो आदि रहे। इन जनजातियों को आगे लाने और अंग्रेजों से टक्कर लेने का साहस और प्रोत्साहन देने में बाबू कूवर सिंह, गणपत राय पान्डेय, विश्वनाथ शाहदेव का महत्वपूर्ण योगदान था जिन्हें 1857 की क्रान्ति में शामिल होने के आरोप में सभी को फांसी दे दी गई थी। 1831.32 के बीच मुंडाओं ने कई आंदोलन किए जिसमें कोल आंदोलन, सरदार ताना भगत, बिरसा आंदोलन प्रमुख हैं। कोल विद्रोह में उराँव तथा मुंडाओं ने बिचौलियों, साहूकारों और सूदखोरों को झारखंड राज्य से भगाया ही नहीं बल्कि अंग्रेजों के साथ इन्हें भी मौत के घाट उतार दिया था। इस कोल विद्रोह से तंग होकर अंग्रेजों को अपनी नीति में परिवर्तन करना पड़ा तथा दक्षिण पश्चिम सीमा की स्थापना की गई तथा दीवानी और फौजदारी कानूनों में उन्हें परिवर्तन करना पड़ा।

इसी प्रकार संथाल क्रान्ति के अगुआ सिदो, कान्हों, चांइ, चांद और भोरो चारो, बधनाडीह निवासी चुन्नू माझी के पुत्र थे। इस परिवार का जन जातियों में काफी असर था। इन लोगों ने अपने कुल देवेता ‘मरांगवरू’ और कुल देवी ‘जोहेराएरा’ की पूजा अर्चना करने के बाद संथाल परगना में क्रांन्ति का बिगुल बजाया। इनके नेतृत्व में संथालों ने अंग्रेजों की ओर से जबरन कराई जाने वाली नील की खेती में मजदूरी करने से इंकार किया। इसी बीच एक आदिवासी महिला को अंग्रेज ठेकेदार की ओर से जबरन अपहरण करने के विरोध में करीब 10 हजार संथालों ने अंग्रेजों पर तीर कमान लेकर चढ़ाई करके अधिकंश अंग्रेज व्यक्तियों तथा देशी सूदखोरों को मौत के घाट उतारा और महिला को मुक्त कराया। इस आंदोलन में वीर भूमि के रांगा ठाकुर तथा खेतौरी के राज वीर सिंह की संथालों को संगठित करने में अहम भूमिका थी। अंग्रेजों के खिलाफ संथालों का नारा था कि ‘जुमीदार, महाजोन, पुलिस, आर राजोरेन आमली की गुजूकमा’ अर्थात वे जमींदार, पुलिस, महाजन सरकारी आज्ञा नहीं मानेंगे तथा लगान देना बन्द कर देंगे और अंग्रेजों का साथ देने वाले को संथाल अपना दुश्मन समझेंगे चाहे वे संथाल ही क्यों न हों।

इन्ही संथालों की वजह से पहड़िया जाति के आदिवासियों में अंग्रेजी शासन के खिलाफ नफरत की आग पैदा हुई और उन लोगों ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। पहड़िया जन जाति के लोगो का अमला पाड़ा के कीना राम भगत तथा बच्चा राम भगत की ओर से शोषण किया जाता था इनके पास दो सौ से अधिक सिपाही हमेशा रहते थे तथा जो सूद नहीं देता था उसे सजा देते थे। संथालों ने इन सूदखोरों  और अंग्रेजों को विद्रोह कर मौत के घाट उतारा। इस विद्रोह में करीब 10 हजार संथाल भी मारे गए थे। इस विद्रोह के बाद संथाल परगना करीब एक साल तक सिदों कान्हों भाइयों के अधीन रहा। सिदों और कान्हों ने अंग्रेज अधिकारी सार्जेंट बोर्डन को मार दिया जिसके बाद इन दोनों भाइयों को फांसी दे दी गई।

देश की आजादी में मुख्य भूमिका निभाने वाले खास कर छोटा नागपुर और संथाल परगना में मुंडाओं की मुख्य भूमिका रही जिसमें बिरसा मुंडा प्रमुख हैं। बिरसा आंदोलन 1895 में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में शुरू हुआ उस समय क्रान्तिकारियों के हौसले काफी बुलन्द थे। आदिम जनजातियो में भी शिक्षा संस्कृति के प्रति काफी जागरुकता आई। छोटा नागपुर में बाहरी व्यापारी, अंग्रेजों और अन्य तबके के लोग आकर बसने लगे और इन लोगों की काफी जमीन हथिया ली इसके खिलाफ बिरसा मुंडा तथा इनके अनुयायियों ने रेललाइन, सड़क, टेलीफोन को उखाड़ा। इससे अंग्रेजों के हौसले काफी पस्त हो गए।

श्री बिरसा मुंडा तथा उनके साथियों को कई बार जेल जाना पड़ा। बिरसा मुंडा के नेतृत्व में दूसरी बार विद्रोह 1898 में शुरू हुआ और कई स्थानों पर जन जातियों को संगठित कर उन्होंने अपने पारंपरिक हथियारों के साथ अंग्रेजी हुकूमत का पुरी ताकत से विरोध किया और फिरंगियों को मौत के घाट उतारने का एलान किया जिससे अंग्रेजों को तंग आकर उन पर 500 रुपए का इनाम घोषित करना पड़ा। बिरसा मुंडा का यह आंदोलन 1899 से 1900 तक चला। अंग्रेजो की दोरंगी चाल से मुंडाओं का आंदोलन सफल होने के बावजूद भी करीब 32 मुंडा सरदार विद्रोहियों के आत्मसमर्णपण करने और कुछ लोगों की ओर से इनके छुपे होने के स्थान की जानकारी अंग्रेजों को दिए जाने पर गिरफ्तार कर लिया गया। अंग्रेजों की ओर से प्रताड़ित किए जाने और जेल में ही बीमार होने से तीन जून 1900 को बिरसा मुंडा की मौत हो गई और मुंडा सहित छोटा नागपुर और संथाल परगना के सभी क्रांन्तिकारी आदिवासी अमर हो गए।

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