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भलाई करना और उदारता दिखाना न भूलो, क्योंकि परमेश्वर अयसे बलिदान से खुश होता है याकूब 13 :16

स्ववंत्र रहने वाले उरांव

हमेशा से स्ववंत्र रहने वाले उरांवों ने अंग्रेजी शासन को लोहे के चने चबवा दिए थे और शायद यही कारण है कि अंग्रेजों के साथ स्थानीय रियासतों के शासकों ने भी उरांवों की स्वतंत्रता में कभी बाधक बनने का साहस नहीं किया। दो हजार साल शासन करने वाले उरांवों का समय गुजरने के साथ शासन तो खत्म हो गया, लेकिन उनका चमकदार इतिहास आज भी कायम है। अपनी उत्पत्ति के आरंभ से मेहनतकश और मस्ती में डूबे रहने वाले उरांव खुद को प्रकृत्ति के निकट रहना और रखना पसंद करते रहे हैं।

उरांव जनजति को अंग्रेजी शासन कभी अपना गुलाम नहीं बना पाया और न ही स्थानीय राजाओं की हुकूमत उन पर चली। उरांव स्वतंत्रता के साथ दो हजार साल तक छोटा नागपुर में राज करते रहे। यह जानकारी उरांव जाति के वयोवृध्द सदस्य संत पडरु राम की किताब से मिलती है। छत्तीसगढ़ की दूसरी जनजातियों की तरह ही उरांव जनजाति की परंपराएं, जीवनशैली है। उरांव की उत्पत्ति को लेकर मतभेद हैं, लेकिन अधिकांश लोग इन्हें द्रविण जाति का वंशज मानते हैं। उरांव जनजाति मूलत: दक्षिण भारत निवासी है, लेकिन धीरे-धीरे वे स्थान परिवर्तन करने लगे और उत्तर भारत की ओर आते गए। आरंभिक दौर में इनकी बसावट महाराष्ट्र, फिर बिहार और इसके बाद छत्तीसगढ़ के रायगढ़ व सरगुजा जिले में अधिकाधिक होती गई।
एक अनुमान के अनुसार इन दो जिलों में किसी दूसरी जनजाति की अपेक्षा उरांव की जनसंख्या अधिक है। यह जनजाति ऐसी है, जहां वाचिक परंपरा के साथ लिखित परंपरा भी रही है। संत पडरु राम ने अपनी किताब में लिखा है कि छोटा नागपुर क्षेत्र में बसने वाली उरांव जनजाति को न तो अंग्रेजी शासक और न ही स्थानीय राजा गुलाम बना सके। वे पूरे समय स्वतंत्र रहे। इस किताब के अनुसार उरांव उरमाल क्षत्रिय हैं और छोटा नागपुर में दो हजार से ज्यादा साल तक इनका शासन रहा। इनके शासन की गवाही छोटा नागपुर में मिलने वाले खंडहर हैं। छत्तीसगढ़ में बसने वाली उरांव जाति की बोली को कुरुख कहते हैं। इनकी भाषा में तमिल और कनारी भाषा के शब्दों की बहुतायत है।
हमेशा से स्वतंत्र रहने वाले उरांवों ने अंग्रेजी शासन को लोहे के चने चबवा दिए थे और शायद यही कारण है कि अंग्रेजों के साथ स्थानीय रियासतों के शासकों ने भी उरांवों की स्वतंत्रता में कभी बाधक बनने का साहस नहीं किया। दो हजार साल शासन करने वाले उरांवों का समय गुजरने के साथ शासन तो खत्म हो गया, लेकिन उनका चमकदार इतिहास आज भी कायम है। अपनी उत्पत्ति के आरंभ से मेहनतकश और मस्ती में डूबे रहने वाले उरांव खुद को प्रकृति के निकट रहना और रखना पसंद करते रहे हैं और इन्हीं कारणों से पहाड़ों के बीच रहना उन्हें आज भी पसंद है। जनपदीय सामाजिक व्यवस्था से परे वे अलग-थलग ही रहना पसंद करते हैं। देश की दूसरी जनजाति की तरह ही उरांव भी स्वयं को धरती पुत्र मानते हैं और वनोपज से अपना जीवन-यापन करते हैं। जानवरों का शिकार भी उरांव जनजाति के लोग करते हैं।
परिवर्तनशील उरांव समय के परिवर्तन के साथ खुद को उसमें ढाल लेते हैं। जंगलों की अंधाधुंध कटाई के कारण इनकी जीवनशैली में बाधा आने लगी, तो उरांव जनजाति के लोग खेती-किसानी करने लगे। कुछ परिवार मुर्गीपालन भी करने लगे। उरांव जनजाति की महिलाएं भी श्रमजीवी होती हैं और परिवार की आय में हाथ बंटाने के लिए आयमूलक कार्य करती रही हैं। घर-परिवार का कार्य निबटा कर जंगलों में जाकर तेंदूपत्ता, सरई बीज, महुआ तथा चिरौंजी आदि एकत्र करने का कार्य करती हैं, जिससे उन्हें अच्छा आर्थिक लाभ हो जाता है। उरांव जनजाति में महिला एवं पुरुषों का बराबरी का अधिकार रहता है। इस जनजाति में दहेज प्रथा नहीं है तथा महिलाएं पर्दाप्रथा से भी मुक्त हैं। एक आंकलन के अनुसार उरांव जाति में महिला अत्याचार का प्रतिशत लगभग शून्य है। उरांव जनजाति प्रगतिशील नागर समाज के लिए आदर्श उदाहरण है।
उरांव जनजाति के जीवन में नृत्य और गीत बहुत महत्व रखते हैं। जीवन में खुशहाली और अपने-अपने परिवार की समृध्दि की कामना के साथ ये उत्सव और पूजा-अर्चना का आयोजन करते हैं। अच्छी फसल की कामना के साथ सरना पूजा की जाती है। परंपरागत रूप से आयोजित इस पूजा को ग्राम पुरोहित बैगा सम्पन्न कराता है। इसी तरह परिवार की समृध्दि हेतु कुलदेव की पूजा की जाती है और कुलदेव की प्रसन्नता के लिए बकरे व मुर्गे की बलि दी जाती है। भादो मास की शुक्ल एकादशी के दिन करमा उत्सव का आयोजन होता है। दिनभर उरांव जनजाति के स्त्री-पुरुष मांदल और ढोलक की थाप पर नृत्य करते हैं। उरांव जनजाति के जीवन का यह सबसे सुखद पक्ष होता है, जब ये अपने देव को प्रसन्न करने के लिए नृत्य और गीत का आयोजन करते हैं। उरांव जनजाति के लोग हिन्दू जीवन पध्दति को अपना चुके हैं और भगवान राम उनके आराध्य देव माने जाते हैं।
उरांव जनजाति में विवाह की कई पुरातन परंपरा आज भी कायम है। सामान्यत: विवाह योग्य युवक का पिता अपने लिए पुत्रवधू की तलाश करता है और खोज पूरी हो जाने के बाद वधू के पिता के समक्ष प्रस्ताव रखता है। दोनों पक्षों की आपसी सहमति के बाद परंपरा के अनुसार बूंदे की रकम तय होती है। बूंदे में नगद राशि के साथ चावल, दाल तथा तेल दिया जाता है। यह सामग्री वर पक्ष रिश्ता तय हो जाने के बाद वधू पक्ष को देता है। नगद राशि का कोई बंधन नहीं है। यह वर पक्ष की आर्थिक स्थिति के अनुसार दी जाती है। विवाह उरांव जनजाति की प्रथा के अनुसार होता है।
उरांव जनजाति में बंदवा और ढूंकू विवाह परंपरा भी प्रचलन में है। भीलों में भगोरिया पर्व के समय जिस तरह युवा अपने मनपसंद साथी का चयन करते हैं, वैसी ही कुछ परंपरा उरांव में भी है। यहां भगोरिया जैसा कोई पर्व नहीं होता है, बल्कि सामान्य स्थितियों में जीवनसाथी पसंद आने पर युवक, युवती की रजामंदी के बाद उसकी पसंद की चूड़ी और वस्त्र पहना कर उसे अपनी जीवनसंगिनी बना लेता है। इसे बंदवा प्रथा का नाम दिया गया है, जबकि ढूंकू विवाह परंपरा में युवती को कोई युवक पसंद आया हो तो युवक की रजामंदी के बाद वह उसके घर में बिना किसी औपचारिकता के रहने लगती है। विवाह की औपचारिकता बाद में पूरी की जाती है।
उरांव जनजाति मुंडा व खारिया जनजाति से मेल खाती है। इनका आपस में मेलजोल है, लेकिन नातेदारी नहीं। उरांव अपने ही लोगों के बीच संबंध रखते हैं। पशु-पक्षियों के नाम पर इन्होंने अपने गोत्र का नामकरण किया हुआ है और बदलते समय के साथ ये अपने नाम के साथ गोत्र का उपयोग करने लगे हैं। उरांव जनजाति में जो गोत्र प्रचलन में है, उनमें मिंज, लकड़ा, एक्का, केरकेट्टा आदि हैं। इस जनजाति में शिक्षा की कमी है, लेकिन शासन की नीतियों का लाभ इन्हें मिल रहा है और इनका रूझान शिक्षा की ओर होने लगा है। कई उरांव युवा शिक्षित होकर ऊंचे पदों पर पहुंच गए हैं। परंपरागत उरांव परिवार आज भी अंधविश्वास के शिकार हैं और रोग-दुख की मुक्ति के लिए तांत्रिकों की शरण में जाते हैं। ऐसे परिवारों का चतुर-चलाक लोग शोषण करने से नहीं चूकते हैं। इनकी सामाजिक- आर्थिक स्थितियों में परिवर्तन आ रहा है और शिक्षा के प्रसार के साथ ये अपनी परंपरागत रूढ़िवादी छवि से मुक्त होकर समय के साथ चल पड़े हैं। (विकल्प)

- मनोज कुमार  

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