सुधारवादी सामाजिक एवं धार्मिक आन्दोलन
बीसवीं
सदी के पहले दो दशको में आदिम-जातियों को यानि प्रीमिटीव ट्राइव को बड़े
पैमाने पर ईशाई बनाया गया। इनका धर्म-परिवर्त्तन किया गया। ओर यह प्रक्रिया
बड़े-जोरों से चलाया गया।
यों तो बिरसा आन्दोलन एवं उसके पूर्व के आन्दोलनों का एक लम्बा इतिहास है जिसे यहाँ विस्तार से नहीं लिखा जा रहा है।
लगातर
हो रहे आन्दोलनों ने तथा बीसवी सदी के प्रारम्भिक दो दशकों में हुए
सुधारवादी और सामाजिक, धार्मिक आन्दोलनों ने झारखड़ अलग राज्य की अवधारणा
को जन्म दिया।
उराँव जाति ने जो आन्दोलन 1902 ईस्वी में प्रारंभ किया था उसे एक
प्रसिद्ध सुधारवादी आन्दोलन के रूप में जाना गया। इस आन्दोलन ने “कुरखा”
धर्म या उराँवों के धर्म पर बल दिया। इस आन्दोलन को धर्म गुरूओं ने चलाया।
इसमें आदिम भूत-प्रेत, बूरी आत्माओं से छुटकारा की बात कही गई थी। इसके
अलावा अन्याय रहित भूमि-व्यवस्था तथा जमींदारों, महाजनों सरकारी
कर्मचारियों के अन्याय से मुक्ति दिलाने की बात कही गई। बिरसा मुंड़ा-जाति
ने भी मुँड़ा-जाति में व्याप्त पारम्परिक कुरीतियों से छुटकारा पाने की बात
कही थी ओर उपाय किया था। मुंड़ा तथा उरांव अपने भूतकाल को स्वर्णीम मानते
थे, इसीलिए उस काल को याद करते थे। वैसे तो झारखंड़ क्षेत्र के सभी आदिम
जनजाति अपनी-अपनी परम्परा से जुड़े थे और उनसे अलग हटना नहीं चाहते थे।
हिन्दुओं के द्वारा चलाये गये “भक्ति-आन्दोलन”
का भी प्रभाव झारखंड़ क्षेत्र में पड़ा। जैसा मैंने पहले भी इंगित किया है
कि झारखंड़ में भक्ति-भाव या समर्पण की भावना यहाँ के जनजातियों में नहीं
थी। बराबरी का भाव था। किसी की अराधना करना संस्कृति में निहीत नहीं था। पर
इन वर्षो में बिरसा मुंड़ा के बाद झारखंड में भी ब्राह्मणवादी विचार
धाराओं यानि हिन्दुत्व का प्रचार-प्रसार जोरों पर था। रामायण एवं महाभारत
का पाठ नियमित रूप से गाँव-गाँव में शुरू किया गया था। यह पाठ खाली समय में
यानि गर्मी के दिनों में किया जाता। उसी प्रकार वैष्णव धर्म का भी
प्रचार-प्रसार गाजे-बाजे के साथ किया जाता। चैतन्य महाप्रभु के
वैष्णव-वैरागी अनुआयी “खोल यानि मृदंग बाजे के साथ कीर्तन गाते, गाँव-गाँव में हरिबोल” स्थान बनाए गये।
जावा
भगत, कदर के शिबू भगत, टाना भगत, जुलहा अरवा भगत के द्वारा चलाए गये
आन्दोलन शुद्धता आन्दोलन थे और विशुद्ध खान-पान एवं सादा जीवन पर जोर देते
थे। हिन्दुओं के आन्दोलनों को गोसाई गुरू, वैष्णव वैरागी और कबीर-पंथियों
ने भी किया था। भगतों को बहुत प्रभावित किया था। इन “भगतों” नें “संथाल” तथा “हो” जाति के लोगों को प्रभावित किया था।
कुछ अन्य जनजातियाँ भूमिज आदि राजपूत बनने जले थे। ब्राह्मणवादी संस्कृति के चलते हिन्दुओं ने इनका वर्गीकरण “राजपुत”
में किया। इनके पास जमीन थी। पर इस प्रयास में पूरी सफलता हिन्दुओं को
प्राप्त नहीं हो सकी। क्योंकि मुर्गी-पालन, माँस, शराब, शुअर-पालन आदि को
छोड़ने के लिए अधिकांश तैयार नहीं थे।
यही
हाल कुड़मी-महतो समुदाय का था। 1915 ईस्वी में भक्ति आन्दोलन एवं
हिन्दुत्व से प्रभावित निरंजन महतो ने कुड़मियों को क्षत्रिय जामा पहनाने
का आन्दोलन शुरू किया था। इस समुदाय के हाथ में जमीन-जायदाद थी। इस समुदाय
के अन्दर “जनेऊ”
धारण करने का आन्दोलन चलाया गया तथा माँस-मदिरा छोड़ने का आन्दोलन चलाया
गया। पर यह सफल नहीं हो सका। पर पूरे समुदाय को दुविधा जनक स्थिति में लाकर
खड़ा कर दिया। जिसका कुपरिणाम कई वर्षों के बाद सामने आया। कुड़मी-महतो
समुदाय भी मुंड़ा की तरह खूँटकाटी अधिकार का उपयोग करता रहा था। यह आदिम
जाति में शामिल होनो के बावजूद “हँड़ियाँ” नामक पेय पदार्थ का या खाद्य-पदार्थ का सेवन नहीं करता था।
1930 ईस्वी तक झारखंड़ में धार्मिक-परिवर्त्तनों या सुधारवादी आन्दोलनों का बहुत जोर रहा।
1931
ईस्वी के जातीय सर्वे जिसे डब्लू0 जी0 लेसी0 के द्वारा कराया गया था, की
रिपोर्ट प्रकाशित की गई थी। इसके कुछ वर्षो के बाद बिहार को दो टुकड़ों में
बाँटा गया। बिहार एवं उड़िसा। झारखंड़ क्षेत्र का कुछ हिस्सा उड़िसा में
शामिल हो गया। इससे पुनः एक झटका इस क्षेत्र के लोगों की भाषा, संस्कृति,
सभ्यता पर पड़ा। सामाजिक स्तर एवं सामाजिक प्रतिष्ठा भी परिवर्त्तन हुए।
ज्ञातव्य
हो कि 1912 में बिहार को बंगाल प्रोविंस से अलग किया गया था। उस समय भी
झारखंड़ क्षेत्र के कई बड़े जिले पश्चिम बंगाल के अन्दर रह गये थे।
इस प्रकार झारखंड़ क्षेत्र तीन बड़े राज्यों के अन्दर समाहित कर दिए
गया था। इस क्षेत्र की एकता को इस प्रकार से अलग करके तोड़ने का काम किया
गया था।
यह
वही समय था जब संवैधानिक सुधारों की प्रक्रिया देशभर में शुरू की गई थी।
1935 के गर्वमेंट ऑफ इंड़िया एक्ट के तहत संथाल परगना एवं छोटानागपुर
डीविजन को आंशिक रूप से बहिष्कृत क्षेत्र घोषित किया था। इन दो भू-भागों को
आदिवासी, जनजाति बाहुल क्षेत्र होने के बावजूद इन्हें संविधान की पाँचवी
सूँची में रखने की प्रक्रिया की गई। इसका एक मात्र कारण यही होगा कि ये
क्षेत्र बिहार के अन्दर शामिल कर लिए गये थे एवं बिहार की पूरी गैर-आदिवासी
जनसंख्या के मुकाबले आदिवासी जनसंख्या उतनी नहीं थी। पूरे बिहार को
संविधान के छठी सूची में नहीं रखा जा सकता था। आंशिक रूप से किसी राज्य के
हिस्से को संविधान की छठी अनुसूची में दर्ज नहीं किया जा सकता था।
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