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भलाई करना और उदारता दिखाना न भूलो, क्योंकि परमेश्वर अयसे बलिदान से खुश होता है याकूब 13 :16

नेपाल के उराँव जनजाति

नेपाल एक ऐसा देश है जहाँ भौगोलिक, वातावरण, जाति, भाषा, धर्म और संस्कृति जैसे मौलिक विविधताओं के अतिरिक्त जैविक विभिन्नताएँ भी प्रचुर मात्रा में पायी जाती है। यहाँ हिमालय पहाड़ के तराई में विभिन्न भाषा, धर्म, सँस्कृति और परम्पराओं से परिपूर्ण विभिन्न जाति और धर्म के लोग निवास करते हैं। इस देश में वाहुन, क्षेत्री, आदिवासी, मधेशी, दलित, मुस्लिम और अल्प-संख्यक समुदाय के लोग मुख्य रूप से निवास करते हैं। विभिन्न आदिवासियों, मूलतः पूर्वी तराई में बसने वाले आदिवासियों के मध्य उराँव जनजाति भी एक है। नेपाल में उराँव लोग कहाँ से आये, कब आये इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है; परन्त कुछ लोगों का मानना है कि उराँव लोग भारत से उस समय आये हैं जब भारत में ब्रिटिश शासन का प्रादुर्भाव हुआ। भारत में रेलवे लाइन बिछाने के लिए लकड़ियों की आवश्यकता थी, इसलिए उराँव लोगों के मजबूत शरीर और जंगलों में काम करने की अपार क्षमता को देखते हुए कोशी नदी के तट पर जंगलों में लकड़ी काटने के लिए भेजा गया था। नेपाल के 59 अनुसुचित जनजातियों में उराँव जनजाति को भी रखा गया है। नेपाल में उराँव जनजातियों को अन्य लोग झाँगड़ जाति के नाम से जानते हैं; इसलिए नेपाल सरकार अपनी अनुसुचि में इस जाति को झाँगड़ नामकरण दिया है। परन्तु उराँव लोग अपनी जाति को अपने समुदाय के बीच में उराँव या कुँड़ुख़ के नाम से जानते हैं।
आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक तथा शैक्षिणक दृष्टि से अन्य जातियों के मुकाबले इस जनजाति की स्थिति अत्यन्त दयनीय है। इस समुदाय की धार्मिक परम्पराओं, चालचलन तथा सँस्कृति के आधार पर देखने से ये लोग प्रकृति प्रतीत होते हैं। ये लोग नदी नालों, वनों, पेंड़-पौधों तथा पहाड़ों की पूजा करते हैं। समूह और बस्ती बसाकर रहना इनकी आदत है। रोजी-रोटी तथा रोजगार की तलाश में ये लोग अन्यत्र भी चले जाते हैं, परन्तु एक वर्ष के अन्तराल में जरूर अपने गाँव में वापस आ जाते हैं। आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर होने के कारण ये लोग अपने पैतृक भूमि तक को बेच देते हैं। सरकार की ओर से विशेष ध्यान नहीं दिये जाने के कारण उराँव जनजातियों की स्थिति लाचर व गम्भीर बनी हुई है। 

 जनसंख्या व क्षेत्र
नेपाल के उराँवों में 90 प्रतिशत लोग पूर्वी तराई में निवास करते हैं। पूर्वी तराई में घनघोर जंगल में बस्तियाँ बसाकर ये लोग रहते हैं। विभिन्न विद्वानों ने इन्हें भूमि पुत्रों के रूप में चित्रित किया है। सन् 2000 की जनगणना के अनूसार इनकी जनसंख्या लगभग 54300 है। उराँव जनजाति को संरक्षित करने वाली एक संस्था का दावा है कि इनकी जनसंख्या लगभग 150,000 के आसपास है। ये लोग नेपाल के 43 जिलों में निवास करते हैं। मुख्यतः उराँव जनजाति इलाम, झापा, मोरङग, सुनसरी, सप्तरी, उदयपुर, सिरहा, महोत्तरी, धनुषा, रौतहट, बारा, पर्सा, ललिपुर, काठमांडू, कपिलवस्तु, महेन्द्रनगर तथा कंचनपुर आदि जिलों में पाये जाते हैं। सुनसरी के ईनरूवा, भोकहा, नरसिंह, पश्चिम कुशाहा, लौकही, प्रकाशपुर, मधुवन, झुम्का, मधेशा, बबिया, जल्पापुर, गौतमपुर, दोवानगंज, कप्तानगंज, सत्तेरझोडा, छिटाहा, तनमुना, सिमरिया, भलुवा, दुहबी, पूर्व कुशाहा, खनार, औरावनी, अमाहीबेला, भरोल, चाँदबेला, चिमड़ी, घुसकी, डुम्राहा, गौतमपुर, हरिनगरा, खनार, मध्येहसांही, पकली, रामनगर, बेलगछिया, सिंगिया तथा सोनापुर आदि नगरपालिका में पाये जाते हैं। इसके अलावे बिराटनगर उपमहा-नगरपालिका, बवियाबिर्ता, बेलबारी, उलांबारी, इन्द्रपुर, कमलपुर, तकिया, गछिया, गोन्दिपर, सन्द्रपर, केराबारी, रंगेली, बनिगामा, कसेनी, होक्लाबारी, कटहरी, बाहनी, चंकीनिवारी, झोराहाट, द्रर्बेशा, हसन्द्रह, बयरबन आदि गा.बि.स. तथा झापाको, द्रमक, मेचीनगर, केचना, टांगनडुब्बा, चियाबगान तथा अन्य इलाका में भी उराँव जनजातियों को देखा जा सकता है।  

धर्म
उराँव लोग प्रकृति प्रेमी होते हैं और मुख्यतः नदी, नाला, पेड़-पौधों, जमिन, जंगल तथा पर्वत आदि की पूजा करते हैं। इसलिए इन्हें पकृति पूजक भी कहते हैं। नेपाल में इन लोगों की घनिष्टता हिन्दू सम्प्रदाय से है। जिसके कारण हिन्दुओं का प्रभाव देखने को मिलता है। ये लोग भी देवी-देवता आदि पर भी आस्था रखते हैं। डोर बहादूर के अनुसार ये लोग दुर्गा और काली पूजा भी करते हैं और अपने-अपने घरों में भी मूर्ति पूजा करते हैं। धार्मिक पूजा में कुलदेव पूजा जिसके अन्तर्गत नाद बला, डंगरी, दहाचिगड़ी, मुड्डा आदि की पूजा तथा खरिहानी पूजा, दुरवन्दी पूजा और थानपूजा की जाती है। घर की शुद्धीकरण के लिए डंडा कट्टना, प्राकृतिक प्रकोप से रक्षा के लिए गाभ होअना, नयी फसल के बाद पूना मन्ना, परिवार की उन्नति के लिए ध्यानी पूजा और नाग पचमी के दिन लगपाचे की पूजा की जाती है। इच्छुक उराँव लोग इसाई धर्म को भी मानते हैं, परन्तु अपने धार्मिक अनुष्ठानों में अपनी जाति के प्रतिक समाग्रियों को भेंट करते हैं। 

भाषा
अन्य जातियों की तरह उराँव जनजातियों का भी अपनी मातृ-भाषा है; जिसे कुँड़ुख़ कत्था के नाम से जानते है। यह पुरानी भाषा है और द्रविड़ भाषा परिवार में से आता है। नेपाल में कुँड़ुख़ बोलने वालों की संख्या 27,895 है। नेपाल के प्रसिद्ध भाषाविद् डॉ. माधव प्रसाद पोखेल के अनुसार द्रविड़ भाषा परिवार से एक मात्र जाति उराँव अर्थात कुँड़ुख़ है। वर्तमान में गोरखापात्र के नयॉनेपाल पृष्ठ में कुँड़ुख भाषा में समाचार, लेख, कविता और कहानियों का प्रकाशन हर पखवाड़े में होता है। प्रसिद्ध एफ.एम. रेडिया 99.5 मेगाहर्टज और सप्तकोशी एफ.एम. विराटनगर के द्वारा कुँड़ुख कार्यक्रमों का प्रसारण हो रहा है। कुँड़ुख़ भाषा की अपनी लिपि तोलोंङ सिकि है, परन्तु इसका प्रचलन नेपाल में नहीं हो पाया है। संचार माध्यम में इस भाषा को इस्तेमाल देवनागरी लिपि में की जाती है। उराँव लोग अपने घर में अपनी भाषा का ही प्रयोग करते हैं।  

शिक्षा 
अन्य समुदाय की तुलना में उराँव जनजाति की शैक्षनिक स्थिति दयनीय है। उराँव लोगों में शिक्षा पाने की ललक कम है तथा गरीबी के कारण पढ़े लिखे लोगों की संख्या बहुत कम है। लेकिन फिर भी आजकल उच्च शिक्षा के क्षेत्र में जैसे स्नातक, स्नातकोत्तर आदि में उराँव छात्रों को दिलचस्पी बढ़ी है। परन्तु अब भी बहुत कम लोग अपनी पूरी पढ़ाई कर पाते हैं। आजतक केवल एक व्यक्ति ने वि.पी. कोईराला स्वास्थ विज्ञान प्रतिष्ठान से पी.एच.डी. की उपाधि हासिल कर पायी है।  
  
कार्य
पूर्वकाल में उराँव जनजाति विभिन्न प्राकृतिक विपत्तियों, बिमारियों, बैरियों तथा रोजगार की तलाश में विस्थापित होकर पूर्वी तराई में कोशी नदी के तट पर बस गये। उस समय अन्य जाति के लोग बिमारियों तथा जंगली प्राणियों के भय से जंगलो और पहाड़ों की तराईयों में निवास करना नहीं चाहते थे। परन्तु उराँव लोग जंगलो और पहाड़ की तराईयों को ही अपना शरण स्थल बना लिए। कोशी नदी के तट पर मलेरिया तथा अन्य बिमारियों के उन्मुलन हेतू डी.डी.टी का औषधि उपयोग करने हेतू अन्य जाति के लोग जैसेः बाहुन, क्षेत्री, मधेसी, मुस्लिम तथा अन्य आदिवासी भी वहाँ आकर बस गये, जिसके कारण उराँव जनजाति का विस्थापन प्रारम्भ हो गया और ये लोग विभिन्न जंगलो और पहाड़ों को साफ और समतल करके रहने व खेती करने योग्य भूमि बनाया। एलानी, पर्ती, खोलाका किनार तथा चियाबगान आसपास क क्षेत्र में झोपड़ी बनाकर बस गये। इनकी मुख्य पेशा कृषि रही है। पशुपालन में भी इनकी रूचि है; गाय-भैंस, बकरी और मुर्गी पालन भी करते हैं। खेतीहर मजदूर, रेजा-कुल्ली का कार्य, रिक्शा चलाना, मछली मारना तथा अन्य जीविकोपार्जन का धन्धा भी ये लोग करते हैं। नौकरी पेशा में सरकारी कर्मचारी, शिक्षक, स्वास्थ्य कर्मी, व्यापारी और वाहन चालक का कार्य इनके द्वारा होता है। महिला और पुरूष दोनों काम में हाथ बटाते हैं। महिलाएँ खेतों में काम करने के साथ-साथ उपजाये गये सब्जियों को स्थानिय बाजारों में बेचने का काम भी करती हैं। फुर्सत के क्षणों में मछली मारना, जंगल में शिकार खेलना और चिड़ियाँ मारना भी इनका शौक है। शिकार करने के लिए ये लोग तीर, धनुष, भाला और गुलेल का इस्तेमाल करते हैं।

मकान
इनके अधिकतर मकान कच्चे होते हैं परन्तु शहरों में ईटों से बने पक्के मकान भी देखने को मिलते हैं। घर के दीवालों में फूलों, पक्षियों तथा जानवरों के चित्र बने होते हैं। प्रत्येक घर में एक भण्डार कक्ष भी होता है। तीन चार परिवार का एक संयुक्त आँगन प्रयोग में लाया जाता है, जहाँ धान, गेहूँ, मक्कई तथा अन्य भोजन साग्रियों को सुखाया जाता है। पेड़-पौधों में केला, कटहल, लिच्ची, अमरूद और आम आदि लगाने की परम्परा रही है।

 पहिरावा
उराँव जाति के लोग त्यौहारों तथा विशेष अवसरों पर एक जैसे पोशाक पहनकर नाचते-गाते हैं। बुजुर्ग माता-पिता अपनी सँस्कृति और संस्कार के अनुसार कपड़े और गहने पहनने में विशेष ध्यान देती हैं। महिलाओं के शरीर में गोदना का भी प्रचलन है। पुरूष धोती और फूल बाँह वाला कुर्ता तथा महिलाएँ साड़ी व ब्लाउज पहनती हैं। आधुनिक युग की महीलाएँ कीमती धातू की गहनें भी पहनने लगी हैं। महिलाएँ बालों में जुड़ा तथा फूल, कानों में बिंडियो, कनोसी व झुमका, गले में हँसली, नाक में नकबुटनी, आँगूली मे अँगूठी तथा मछरिया पहनते हैं। पारम्पारिक गहनों में घुमरी पून, पितोन्जी पून और गंगला पून प्रयोग किया जाता है। 
 
अन्य परम्पराएँ
उराँव लोगों के बीच में समान गौत्र के स्त्री-पुरूष में विवाह की प्रथा नहीं है। गोत्र की परम्परा पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों तथा सामग्रियों के नाम से आया है। उराँव लोग अपने गोत्र के प्राणी को खाने से परहेज करते है। त्यौहारों में चाडपर्व, सुकराती, फग्गु, करमा, जितिया, चौरचन्दो, सिरूवा, जतरा तथा शरहूल पर्व को धूमधाम से मनाया जाता है। सामाज के महत्वपूर्ण फैसले आम बैठक में ली जाती है और इसके निर्णायक समाज के लोगों द्वारा नियुक्त व्यक्ति होता है। झगड़ों का निपटारा भी आपसी सलाह विचार और निर्णय के आधार पर किया जाता है; दोषी व्यक्ति को अर्थ दण्ड देना पड़ता है। बच्चे का जन्म प्रायः मयके में होता है। प्रसव में सहयोग, बच्चे का नहलाना, साफ करना तथा नाल काटने का कार्य कुसराईन पच्चो सम्पादित करती है। शिशु के जन्म के बाद घर में खुशी का महौल रहता है। जन्म के छः दिन बाद छट्टी का आयोजन किया जाता है जिसमें रिश्तेदारों तथा इष्ट-मित्रों को भी बुलाया जाता है। इसी दिन बच्चे का नामकरण होता है। गैर इसाई तथा इसाई दोनों प्रकार के उराँवों में जन्म संस्कार लगभग एक जैसा होता है(बपटिज्म को छोड़कर), परन्तु गैर इसाई उराँव हिन्दुओं से अधिक घनिष्टता के कारण हिन्दू नाम रखते हैं, और इसाई लोग इसाई नाम रखना पसन्द करते हैं। विवाह परम्परा एक लम्बी प्रक्रिया के बाद होता है। विवाह के पहिले दिन मड़वा गाड़ना और कंड़सा नृत्य होता है। घड़े में धान को गूँथकर विशेष तरीके से सजाया जाता है और उसमें दीये का इस्तेमाल होता है इसे कंड़सा कहते हैं। किसी महिला के सिर में कंड़सा रख कर नृत्य करने की परम्परा है। बराती आना, दुल्हा-दुल्हन का सिन्दूर लगाना, विवाह-भोज खाना, हँसी ठिठोली करना, नाच-गान करना, दुल्हे के द्वारा मयसारी व उपहार ससुराल पक्ष को देना और बारातियों को बिदाई देना विवाह संस्कार के अन्तर्गत आता है। उराँवों में मरने के बाद लाश को गाड़ने और जलाने, दोनों तरह की परम्परा विद्यमान है।

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